महिलाएँ, जाति एवं सुधार

महिलाएँ, जाति एवं सुधार: मुख्य बिंदु और प्रश्नोत्तर

मुख्य बिंदु (Important Points):

  • सती प्रथा का अंत: राजा राममोहन रॉय ने सती प्रथा के खिलाफ़ आवाज़ उठाई और 1829 में इस पर पाबंदी लगा दी गई।

  • विधवा पुनर्विवाह: ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से 1856 में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली।

  • महिला शिक्षा का प्रसार: उन्नीसवीं सदी में कई सुधारकों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले, हालाँकि समाज में इसे लेकर विरोध था। कई महिलाओं ने घर पर ही पढ़ना-लिखना सीखा।

  • बाल विवाह का विरोध: महिला संगठनों के प्रयासों से 1929 में बाल विवाह निषेध अधिनियम पारित किया गया, जिसमें लड़कियों की शादी की उम्र 16 और लड़कों की 18 वर्ष तय की गई (बाद में बढ़ाकर 18 और 21)।

  • जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ संघर्ष: उन्नीसवीं सदी में कई समाज सुधारकों जैसे राजा राममोहन रॉय, घासीदास, श्री नारायण गुरु और ज्योतिराव फुले ने जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता के खिलाफ़ आवाज़ उठाई।

  • ज्योतिराव फुले और ‘गुलामगीरी’: फुले ने ब्राह्मणों के आर्य मूल के दावे का खंडन किया और ‘निम्न’ जातियों के अधिकारों का समर्थन किया। उन्होंने 1873 में ‘गुलामगीरी’ नामक पुस्तक लिखी।

  • मंदिर प्रवेश आंदोलन: बी.आर. अम्बेडकर ने 1927 से 1935 के बीच मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाकर जातीय पूर्वाग्रहों की मजबूती को उजागर किया।

  • गैर-ब्राह्मण आंदोलन: पेरियार (ई.वी. रामास्वामी नायकर) जैसे नेताओं ने ब्राह्मणवादी दावों को चुनौती दी और ‘निम्न’ जातियों के स्वाभिमान के लिए संघर्ष किया।

  • संचार का महत्व: किताबों, अख़बारों और पत्रिकाओं के माध्यम से सामाजिक मुद्दों पर बहस और चर्चाएँ आम लोगों तक पहुँचीं, जिससे सुधार आंदोलनों को बल मिला।


प्रश्नोत्तर (Question Answers):

अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Questions):

  1. राजा राममोहन रॉय ने किस सामाजिक बुराई के खिलाफ़ मुहिम चलाई?
    उत्तर: सती प्रथा।

  2. विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता कब मिली?
    उत्तर: 1856 में।

  3. ‘गुलामगीरी’ पुस्तक के लेखक कौन थे?
    उत्तर: ज्योतिराव फुले।

  4. बी.आर. अम्बेडकर ने कौन-सा आंदोलन चलाया था?
    उत्तर: मंदिर प्रवेश आंदोलन।

  5. बाल विवाह निषेध अधिनियम कब पारित हुआ था?
    उत्तर: 1929 में।


लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions):

  1. उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा को लेकर लोगों के क्या विचार थे?
    उत्तर: उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा को लेकर समाज में मिश्रित विचार थे। कई सुधारकों का मानना था कि महिलाओं की दशा सुधारने के लिए शिक्षा ज़रूरी है। हालाँकि, ज़्यादातर लोग लड़कियों को स्कूल भेजने से डरते थे। उनका मानना था कि स्कूल जाने से लड़कियाँ घर के कामकाज से दूर हो जाएँगी और बिगड़ जाएँगी, तथा सार्वजनिक स्थानों पर उनका जाना उचित नहीं है।

  2. ज्योतिराव फुले ने ‘निम्न’ जातियों के अधिकारों के लिए क्या तर्क दिए?
    उत्तर: ज्योतिराव फुले का तर्क था कि आर्य विदेशी थे और उन्होंने इस उपमहाद्वीप के मूल निवासियों (जिनको ‘निम्न’ जाति का माना गया) को हराकर उन्हें गुलाम बना लिया था। वे मानते थे कि ‘ऊँची’ जातियों का ज़मीन और सत्ता पर कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह धरती यहाँ के देशी लोगों की है। उन्होंने ‘शूद्रों’ और ‘अतिशूद्रों’ को जातीय भेदभाव खत्म करने के लिए संगठित होने का आह्वान किया।

  3. मंदिर प्रवेश आंदोलन का क्या उद्देश्य था?
    उत्तर: मंदिर प्रवेश आंदोलन का उद्देश्य समाज में व्याप्त जातीय पूर्वाग्रहों और अस्पृश्यता को उजागर करना था। बी.आर. अम्बेडकर ने यह आंदोलन इसलिए चलाया ताकि समाज को यह दिखाया जा सके कि ‘अछूतों’ को भी इंसानों के बराबर अधिकार मिलने चाहिए और धार्मिक स्थलों में प्रवेश से उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए।


दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions):

  1. उन्नीसवीं सदी में भारत में सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने में संचार के नए तरीकों ने क्या भूमिका निभाई?
    उत्तर: उन्नीसवीं सदी में संचार के नए तरीके, जैसे किताबें, अख़बार, पत्रिकाएँ, पर्चे और पुस्तिकाएँ, सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने में बहुत महत्वपूर्ण साबित हुए।

    • जानकारी का प्रसार: ये चीजें पुराने साधनों (पांडुलिपियों) के मुकाबले सस्ती और ज़्यादा लोगों तक पहुँचने वाली थीं। इससे आम लोग भी सामाजिक मुद्दों पर छपी सामग्री को अपनी भाषाओं में पढ़ सके।

    • बहस और चर्चा: नए शहरों में पुरुषों (और कभी-कभी महिलाओं) के बीच सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक मुद्दों पर चर्चाएँ होने लगीं। ये चर्चाएँ आम जनता तक पहुँचीं और सामाजिक परिवर्तन के आंदोलनों से जुड़ीं।

    • विचारों का आदान-प्रदान: सुधारकों ने अपने विचारों का प्रसार करने और लोगों को पुराने रीति-रिवाजों को छोड़कर नए व्यवहार अपनाने के लिए प्रेरित करने के लिए इन माध्यमों का उपयोग किया। उदाहरण के लिए, राजा राममोहन रॉय ने सती प्रथा के खिलाफ़ पर्चे लिखे।

    • जनमत निर्माण: इन माध्यमों से लोगों में जागरूकता बढ़ी, जिससे सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ़ जनमत तैयार हुआ और सुधारों के पक्ष में आवाज़ मज़बूत हुई।

  2. बी.आर. अम्बेडकर और ई.वी. रामास्वामी नायकर (पेरियार) ने जाति व्यवस्था की आलोचना क्यों की और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी आलोचना से क्या मदद मिली?
    उत्तर:

    • बी.आर. अम्बेडकर: एक महार परिवार में पैदा हुए अम्बेडकर ने जातीय भेदभाव को करीब से देखा था। उन्हें स्कूल में कक्षा के बाहर बैठना पड़ता था और सवर्ण बच्चों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले नलकों से पानी पीने की इजाज़त नहीं थी। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि हिंदू समाज का पुनर्गठन समानता और जातिवाद की समाप्ति के सिद्धांतों पर होना चाहिए। उन्होंने मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाकर जातीय पूर्वाग्रहों की मजबूती को उजागर किया और ‘निम्न’ जातियों में स्वाभिमान का भाव पैदा करने का प्रयास किया।

    • ई.वी. रामास्वामी नायकर (पेरियार): पेरियार ने संस्कृत शास्त्रों का अध्ययन किया था और बाद में कांग्रेस छोड़ दी क्योंकि उन्होंने देखा कि जातीय भेदभाव राष्ट्रवादियों की दावतों में भी मौजूद था। उनका मानना था कि ब्राह्मणों ने ‘निम्न’ जातियों (मूल तमिल और द्रविड़ संस्कृति के वाहक) को अपने अधीन कर लिया है। उन्होंने हिंदू वेद-पुराणों और धार्मिक ग्रंथों की आलोचना की, जिनका ब्राह्मणों ने ‘निम्न’ जातियों और पुरुषों ने महिलाओं पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए सहारा लिया था। उन्होंने ‘अछूतों’ को अपने स्वाभिमान के लिए खुद लड़ने का आह्वान करते हुए स्वाभिमान आंदोलन शुरू किया।

    राष्ट्रीय आंदोलन में मदद:

    • जातीय असमानताओं पर ध्यान: अम्बेडकर और पेरियार जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर जातिगत भेदभाव और असमानता के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। इससे भारतीय समाज की आंतरिक समस्याओं पर भी ध्यान केंद्रित हुआ, न कि केवल औपनिवेशिक शासन पर।

    • समावेशी दृष्टिकोण: उनकी आलोचनाओं ने राष्ट्रीय नेताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सामाजिक समानता और न्याय भी उतना ही ज़रूरी है। इससे राष्ट्रीय आंदोलन में ‘निम्न’ जातियों और दलितों की भागीदारी बढ़ी और आंदोलन को अधिक समावेशी बनाने में मदद मिली।

    • आत्म-मंथन: उनकी तीखी आलोचनाओं ने उच्च जातीय राष्ट्रवादी नेताओं के बीच कुछ आत्म-मंथन और आत्मालोचना की प्रक्रिया शुरू की, जिससे सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ने के लिए दबाव बना।

    • सामाजिक सुधारों का महत्व: इन नेताओं ने यह स्थापित किया कि स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक सुधार भी देश के विकास के लिए आवश्यक हैं, जिससे भविष्य के भारत के लिए एक अधिक न्यायपूर्ण समाज की नींव पड़ी।


CBSE महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (Important CBSE Questions with Answers):

Short Answer Questions (3 Marks):

  1. राजा राममोहन रॉय ने सती प्रथा के खिलाफ़ अपने अभियान में क्या रणनीति अपनाई?
    उत्तर: राजा राममोहन रॉय ने सती प्रथा के खिलाफ़ अभियान में एक प्रभावशाली रणनीति अपनाई। उन्होंने प्राचीन धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और अपने लेखन के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गई है। उन्होंने कई पर्चे लिखे जिसमें सती प्रथा के समर्थकों और विरोधियों के बीच बहस को दर्शाया गया। उनके विचारों को कई अंग्रेज़ अफ़सरों ने भी सही माना, जिससे 1829 में सती प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई। उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान रीति-रिवाज प्रारंभिक परंपराओं के खिलाफ़ हैं।

  2. उन्नीसवीं सदी में लड़कियों को स्कूल भेजने के पीछे लोगों की क्या आशंकाएँ थीं?
    उत्तर: उन्नीसवीं सदी में लड़कियों को स्कूल भेजने के पीछे लोगों की कई आशंकाएँ थीं:

    • घरेलू कामकाज का छूटना: लोगों को भय था कि स्कूल वाले लड़कियों को घर से निकाल ले जाएँगे और उन्हें घरेलू कामकाज नहीं करने देंगे।

    • सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन: बहुत सारे लोगों का मानना था कि लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों से दूर रहना चाहिए, और स्कूल जाने के लिए उन्हें सार्वजनिक स्थानों से गुज़रना पड़ता था, जिससे उनके “बिगड़ने” का डर था।

    • विधवा होने का डर: देश के कई भागों में लोगों का विश्वास था कि अगर औरत पढ़ी-लिखी होगी तो वह जल्दी विधवा हो जाएगी।
      इन आशंकाओं के कारण, उन्नीसवीं सदी में ज़्यादातर महिलाओं को उनके उदार विचारों वाले पिता या पति की देखरेख में घर पर ही पढ़ाया जाता था।

Medium Answer Questions (5 Marks):

  1. ईश्वरचंद्र विद्यासागर के विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में किए गए प्रयासों का वर्णन करें। इस कानून के बाद समाज की प्रतिक्रिया कैसी रही?
    उत्तर: ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक प्रसिद्ध सुधारक थे जिन्होंने विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में सक्रिय रूप से काम किया।

    • प्राचीन ग्रंथों का हवाला: उन्होंने प्राचीन ग्रंथों का हवाला देते हुए विधवा विवाह को सही ठहराया। उनके तर्क इतने प्रभावशाली थे कि अंग्रेज़ सरकार ने उनके सुझाव को मान लिया।

    • कानून का पारित होना: परिणामस्वरूप, 1856 में विधवा विवाह के पक्ष में एक कानून पारित कर दिया गया। इस कानून ने विधवाओं को दोबारा शादी करने का कानूनी अधिकार प्रदान किया।

    • समाज की प्रतिक्रिया: हालाँकि कानून पारित हो गया, समाज में इसे लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया थी। जो लोग विधवाओं के विवाह का विरोध करते थे, उन्होंने विद्यासागर का बहिष्कार किया और उनका विरोध किया। रूढ़िवादी तबके इस नए कानून का विरोध करते रहे। इसके बावजूद, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक यह आंदोलन देश के अन्य भागों में भी फैल गया। मद्रास प्रेज़ीडेंसी में वीरेशलिंगम पंतुलु और बम्बई में युवा बुद्धिजीवियों ने विधवा विवाह के समर्थन में संगठन बनाए। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी इसका समर्थन किया।

    • चुनौतियाँ: इसके बावजूद, विवाह करने वाली विधवा महिलाओं की संख्या काफ़ी कम थी और उन्हें समाज में आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता था, जिससे पता चलता है कि कानून बनने के बाद भी सामाजिक मानसिकता को बदलना एक बड़ी चुनौती थी।

  2. ज्योतिराव फुले के जाति व्यवस्था पर विचारों और उनके ‘सत्यशोधक समाज’ की भूमिका का मूल्यांकन करें।
    उत्तर: ज्योतिराव फुले उन्नीसवीं सदी के सबसे मुखर ‘निम्न जाति’ नेताओं में से थे जिन्होंने जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की।

    • आर्यों की श्रेष्ठता का खंडन: फुले ने ब्राह्मणों के इस दावे पर खुलकर हमला बोला कि आर्य होने के कारण वे औरों से श्रेष्ठ हैं। उन्होंने तर्क दिया कि आर्य विदेशी थे और उन्होंने इस उपमहाद्वीप के मूल निवासियों – आर्यों के आने से पहले यहाँ रह रहे मूल निवासियों – को हराकर उन्हें गुलाम बना लिया था। उनके अनुसार, ‘ऊँची’ जातियों का ज़मीन और सत्ता पर कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि यह धरती यहाँ के देशी लोगों की है, जो कथित ‘निम्न जाति’ के लोग हैं।

    • स्वर्ण युग का विचार: फुले का मानना था कि आर्यों के शासन से पहले यहाँ स्वर्ण युग था, जब योद्धा-किसान ज़मीन जोतते थे और मराठा देहात पर न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से शासन करते थे।

    • सत्यशोधक समाज की स्थापना: जातिगत भेदभाव को खत्म करने और सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए, फुले ने ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संगठन की स्थापना की। इस समाज ने ‘शूद्रों’ (श्रमिक जातियों) और ‘अतिशूद्रों’ (अछूतों) को जातीय भेदभाव खत्म करने के लिए संगठित होने का आह्वान किया।

    • ‘गुलामगीरी’ पुस्तक: 1873 में उन्होंने ‘गुलामगीरी’ नामक एक किताब लिखी, जिसे उन्होंने अमेरिकी गृह युद्ध के बाद दासों की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समर्पित किया। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने भारत की ‘निम्न’ जातियों और अमेरिकी काले गुलामों की दुर्दशा को एक-दूसरे से जोड़ा।

    • विस्तृत आलोचना: फुले ने अपनी आलोचना को सभी प्रकार की गैर-बराबरी से जोड़ा था, जिसमें ‘उच्च’ जाति महिलाओं की दुर्दशा, मज़दूरों की मुसीबतें और ‘निम्न’ जातियों के अपमानपूर्ण हालात शामिल थे। उनका काम जाति सुधार आंदोलन के लिए एक मजबूत आधार बना।

Long Answer Questions (8 Marks):

  1. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कौन-कौन से महत्वपूर्ण कदम उठाए गए? इन कदमों के बावजूद महिलाओं को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
    उत्तर: उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए:

    • सती प्रथा का उन्मूलन: राजा राममोहन रॉय के प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिससे विधवाओं को अपने पति की चिता पर जिंदा जलने से बचाया जा सका।

    • विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता: ईश्वरचंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून पारित हुआ, जिससे विधवाओं को दोबारा विवाह करने का अधिकार मिला। कई सुधारकों ने इसके पक्ष में संगठन बनाए।

    • महिला शिक्षा का प्रसार: कई सुधारकों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले। कलकत्ता में विद्यासागर, बम्बई में अन्य सुधारकों, पंजाब में आर्य समाज और महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले ने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा दिया। मुस्लिम परिवारों ने भी घर पर शिक्षिकाएँ रखकर लड़कियों को कुरान शरीफ़ पढ़ना सिखाया। भोपाल की बेगमों और रुकैया सख़ावत हुसैन ने लड़कियों के लिए प्राथमिक स्कूल खोले।

    • बाल विवाह पर रोक: महिला संगठनों के विकास और जनमत निर्माण के परिणामस्वरूप 1929 में बाल विवाह निषेध अधिनियम पारित हुआ, जिसने विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित की।

    • महिलाओं द्वारा स्वयं की आवाज़ उठाना: बीसवीं सदी की शुरुआत से ही मुस्लिम और हिंदू महिलाओं ने शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं और मताधिकार के लिए राजनीतिक दबाव समूह बनाए। ताराबाई शिंदे ने ‘स्त्रीपुरुषतुलना’ में लिंगभेद की आलोचना की, और पंडिता रमाबाई ने उच्च जातीय हिंदू महिलाओं की दुर्दशा पर लिखा तथा विधवागृह की स्थापना की।

    • राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी: बीसवीं शताब्दी में कई महिलाओं ने राष्ट्रवादी और समाजवादी आंदोलनों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने भी महिलाओं के लिए अधिक स्वतंत्रता और समानता की माँगों का समर्थन किया।

    चुनौतियाँ: इन सुधारों के बावजूद महिलाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा:

    • सामाजिक प्रतिरोध: सती प्रथा के अंत और विधवा पुनर्विवाह जैसे कानूनों का रूढ़िवादी समाज ने कड़ा विरोध किया। विवाह करने वाली विधवाओं को समाज में आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता था।

    • शिक्षा के प्रति आशंकाएँ: लड़कियों को स्कूल भेजने को लेकर समाज में गहरी आशंकाएँ थीं। लोगों को डर था कि लड़कियाँ बिगड़ जाएँगी या घर के कामों से विमुख हो जाएँगी। परिणामस्वरूप, कई महिलाओं को चोरी-छिपे पढ़ना-लिखना पड़ता था।

    • पितृसत्तात्मक सोच: समाज में पुरुषों और महिलाओं के बीच की असमानता गहरी थी। संपत्ति पर महिलाओं के अधिकार सीमित थे और उन्हें अक्सर घर और रसोई तक ही सीमित रखा जाता था। पेरियार जैसे नेताओं ने बताया कि कैसे महिलाएं अपने पतियों की कठपुतली बन गई थीं।

    • जातीय भेदभाव का प्रभाव: जाति व्यवस्था ने भी महिलाओं की स्थिति को प्रभावित किया, खासकर ‘निम्न’ जातियों की महिलाओं की दुर्दशा अधिक थी।

इन प्रयासों और चुनौतियों के बीच, भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में धीरे-धीरे सुधार हुआ, लेकिन पूर्ण समानता का लक्ष्य आज भी पूरी तरह से हासिल नहीं हो पाया है।

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