अध्याय 6: “देशी जनता” को सभ्य बनाना, राष्ट्र को शिक्षित करना
अध्याय का सारांश:
यह अध्याय भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत शिक्षा के विकास और विभिन्न दृष्टिकोणों पर केंद्रित है। यह बताता है कि कैसे अंग्रेज़ों ने भारतीय समाज को ‘सभ्य’ बनाने और अपनी रीति-रिवाजों और मूल्यों को बदलने के लिए शिक्षा को एक उपकरण के रूप में देखा।
मुख्य बिंदु:
प्राच्यवाद की परंपरा: 1783 में विलियम जोन्स जैसे विद्वान कलकत्ता आए और भारतीय भाषाओं, ग्रंथों और संस्कृतियों का अध्ययन करने में रुचि रखते थे। उनका मानना था कि भारतीय सभ्यता प्राचीन काल में वैभवशाली थी और इसे समझने के लिए प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन ज़रूरी था। उन्होंने “एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल” की स्थापना की। प्राच्यवादी चाहते थे कि भारतीयों को उनकी अपनी विरासत के बारे में शिक्षित किया जाए।
“पूरब की जघन्य गलतियाँ”: 19वीं सदी की शुरुआत में जेम्स मिल और थॉमस बैबिंगटन मैकॉले जैसे कुछ अंग्रेज़ अधिकारियों ने प्राच्यवादी दृष्टिकोण की आलोचना की। वे मानते थे कि पूर्वी समाज का ज्ञान त्रुटियों से भरा था और अवैज्ञानिक था। मैकॉले का तर्क था कि यूरोपीय ज्ञान भारतीय साहित्य से कहीं श्रेष्ठ है और भारतीयों को पश्चिमी विज्ञान और दर्शन पढ़ाना चाहिए ताकि उन्हें सभ्य बनाया जा सके। 1835 के शिक्षा अधिनियम ने उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी बना दिया।
व्यवसाय के लिए शिक्षा: 1854 के वुड्स डिस्पैच (वुड का नीतिपत्र) ने यूरोपीय शिक्षा के व्यावहारिक लाभों पर ज़ोर दिया। इसका उद्देश्य भारतीयों को व्यापार और वाणिज्य के विस्तार को समझने और नैतिक चरित्र को उन्नत करना था ताकि कंपनी को ईमानदार कर्मचारी मिल सकें। इसने सरकारी शिक्षा विभागों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की नींव रखी।
नैतिक शिक्षा की माँग: ईसाई प्रचारकों का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य नैतिक चरित्र का सुधार करना है, जो केवल ईसाई शिक्षा के माध्यम से संभव है। हालाँकि, कंपनी को स्थानीय असंतोष के डर से प्रचारकों की गतिविधियों के प्रति सतर्क थी।
स्थानीय पाठशालाएँ: विलियम एडम की रिपोर्ट (1830 के दशक) ने बंगाल और बिहार में एक लाख से ज़्यादा लचीली स्थानीय पाठशालाओं का वर्णन किया। ये पाठशालाएँ स्थानीय ज़रूरतों के हिसाब से चलती थीं, जैसे कटाई के समय कक्षाएँ बंद हो जाती थीं ताकि बच्चे खेतों में काम कर सकें।
नई दिनचर्या, नए नियम: 1854 के बाद, कंपनी ने इन पाठशालाओं को नियंत्रित करने के लिए नए नियम लागू किए। पंडितों को नियुक्त किया गया, पाठ्यक्रम और वार्षिक परीक्षाएँ शुरू की गईं, और छात्रों को नियमित शुल्क, उपस्थिति और अनुशासन का पालन करना पड़ा। जो पाठशालाएँ इन नियमों का पालन नहीं करती थीं, उन्हें सरकारी सहायता नहीं मिलती थी। इससे गरीब किसान के बच्चों के लिए शिक्षा मुश्किल हो गई।
राष्ट्रीय शिक्षा की कार्यसूची: कई भारतीय विचारकों ने पश्चिमी शिक्षा का विरोध किया और एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की वकालत की।
महात्मा गांधी: उनका मानना था कि औपनिवेशिक शिक्षा ने भारतीयों को गुलाम बना दिया है, उन्हें अपनी संस्कृति से दूर कर दिया है। वे ऐसी शिक्षा के पक्षधर थे जो भारतीयों में आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करे, और भारतीय भाषाओं में हस्तकलाओं पर आधारित हो।
रवींद्रनाथ टैगोर: उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की। उनका मानना था कि बच्चे को प्राकृतिक परिवेश में मुक्त और रचनात्मक होना चाहिए और शिक्षा को आनंदमय होना चाहिए। टैगोर पश्चिमी सभ्यता और भारतीय परंपरा के सर्वश्रेष्ठ तत्वों का मिश्रण चाहते थे, जिसमें कला, संगीत, नृत्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा शामिल थी।
प्रश्नोत्तर (आसान हिंदी में):
1. विलियम जोन्स को भारतीय इतिहास, दर्शन और कानून का अध्ययन क्यों ज़रूरी दिखाई देता था?
उत्तर: विलियम जोन्स का मानना था कि भारतीय सभ्यता प्राचीन काल में बहुत विकसित थी, लेकिन बाद में उसका पतन हो गया। उनका मानना था कि भारत को समझने के लिए प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अध्ययन ज़रूरी है क्योंकि इससे हिंदुओं और मुसलमानों के असली विचारों और कानूनों को समझा जा सकता है। उन्हें लगता था कि इन ग्रंथों के दोबारा अध्ययन से ही भारत का विकास हो सकता है।
2. जेम्स मिल और थॉमस मैकॉले ऐसा क्यों सोचते थे कि भारत में यूरोपीय शिक्षा अनिवार्य है?
उत्तर: जेम्स मिल और थॉमस मैकॉले का मानना था कि पूर्वी समाजों का ज्ञान गलत और अधूरा था। मैकॉले का कहना था कि यूरोपीय ज्ञान भारतीय ज्ञान से कहीं बेहतर है। वे सोचते थे कि भारतीयों को सभ्य बनाने, उन्हें पश्चिमी विज्ञान और दर्शन सिखाने और उनकी सोच को बदलने के लिए यूरोपीय शिक्षा ज़रूरी थी।
3. महात्मा गांधी बच्चों को हस्तकलाएँ क्यों सीखाना चाहते थे?
उत्तर: महात्मा गांधी का मानना था कि शिक्षा का मतलब सिर्फ पढ़ना-लिखना नहीं है। वे चाहते थे कि बच्चों का दिमाग और आत्मा विकसित हो। उनका मानना था कि इसके लिए बच्चों को हाथ से काम करना, हुनर सीखना और चीज़ों के काम करने के तरीके को जानना ज़रूरी है। हस्तकलाएँ उन्हें व्यावहारिक ज्ञान देती थीं और उनकी समझने की क्षमता को बढ़ाती थीं।
4. महात्मा गांधी ऐसा क्यों सोचते थे कि अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीयों को गुलाम बना लिया है?
उत्तर: महात्मा गांधी का मानना था कि अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीयों को हीन महसूस कराया। इससे वे पश्चिमी सभ्यता को बेहतर मानने लगे और अपनी संस्कृति पर गर्व करना भूल गए। उन्हें लगता था कि अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीयों को अपने सामाजिक परिवेश से काट दिया और उन्हें अपनी ही ज़मीन पर पराया महसूस कराया, जिससे वे अंग्रेज़ों के गुलाम बन गए।
महत्वपूर्ण CBSE प्रश्नोत्तर:
लघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक):
1. प्राच्यवादी कौन थे और उन्होंने भारत में शिक्षा के लिए क्या किया?
उत्तर: प्राच्यवादी वे लोग थे जो एशिया की भाषाओं और संस्कृतियों का गहरा ज्ञान रखते थे। विलियम जोन्स जैसे प्राच्यवादियों ने संस्कृत, फ़ारसी और भारतीय ग्रंथों का अध्ययन किया। उन्होंने “एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल” की स्थापना की और भारतीय विरासत को समझने और उसे बढ़ावा देने का प्रयास किया। वे चाहते थे कि भारतीयों को उनकी अपनी संस्कृति और अतीत के गौरव से परिचित कराया जाए।
2. थॉमस बैबिंगटन मैकॉले के शिक्षा संबंधी विचारों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर: थॉमस बैबिंगटन मैकॉले भारत को एक असभ्य देश मानते थे जिसे सभ्यता का पाठ पढ़ाना ज़रूरी था। उनका मानना था कि यूरोपीय ज्ञान भारतीय साहित्य से कहीं श्रेष्ठ है। उन्होंने ज़ोर दिया कि अंग्रेज़ी शिक्षा भारतीयों को सभ्य बनाने, उन्हें पश्चिमी विज्ञान और दर्शन से परिचित कराने और उनकी रुचियों व मूल्यों को बदलने का सबसे अच्छा तरीका है। 1835 के शिक्षा अधिनियम में उनके विचारों का प्रभाव दिखा, जिसने उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी बना दिया।
3. वुड्स डिस्पैच (वुड का नीतिपत्र) का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर: 1854 के वुड्स डिस्पैच का मुख्य उद्देश्य भारत में लागू की जाने वाली शिक्षा नीति की रूपरेखा स्पष्ट करना था। इसने यूरोपीय शिक्षा के व्यावहारिक लाभों पर ज़ोर दिया। इसका एक उद्देश्य भारतीयों को व्यापार और वाणिज्य के विस्तार को समझने में मदद करना था। दूसरा, इससे भारतीयों के नैतिक चरित्र का उत्थान होगा जिससे कंपनी को सत्यवादी और ईमानदार कर्मचारी मिलेंगे। इसने सरकारी शिक्षा विभागों और विश्वविद्यालयों की स्थापना की भी सिफारिश की।
4. महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ी शिक्षा का विरोध क्यों किया?
उत्तर: महात्मा गांधी ने अंग्रेज़ी शिक्षा का विरोध इसलिए किया क्योंकि उनका मानना था कि इसने भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बना दिया है। उनके अनुसार, यह शिक्षा भारतीयों को अपनी संस्कृति और परंपरा से दूर करती है, उन्हें पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठ मानने पर मजबूर करती है और उन्हें अपनी ही भूमि पर पराया महसूस कराती है। गांधीजी चाहते थे कि शिक्षा भारतीय भाषाओं में हो और व्यावहारिक व हस्तकलाओं पर केंद्रित हो।
5. रवींद्रनाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना क्यों की?
उत्तर: रवींद्रनाथ टैगोर को पारंपरिक स्कूलों का माहौल दमनकारी लगता था, जहाँ बच्चे मनचाहा कुछ नहीं कर पाते थे। वे एक ऐसे स्कूल की कल्पना करते थे जहाँ बच्चे मुक्त और रचनात्मक हों, जहाँ वे अपने विचारों और आकांक्षाओं को समझ सकें। इसलिए, उन्होंने 1901 में शांतिनिकेतन की स्थापना की, ताकि बच्चे प्राकृतिक परिवेश में रहते हुए अपनी स्वाभाविक सृजनात्मक मेधा को विकसित कर सकें।
मध्यम उत्तरीय प्रश्न (3-5 अंक):
1. ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में शिक्षा के क्षेत्र में प्राच्यवादी और आंग्लवादी (मैकॉले समर्थक) विचारों के बीच मुख्य अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्राच्यवादी: विलियम जोन्स जैसे प्राच्यवादी भारतीय भाषाओं (संस्कृत, फ़ारसी) और प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन को बढ़ावा देना चाहते थे। उनका मानना था कि भारतीय सभ्यता प्राचीन काल में गौरवशाली थी और इन ग्रंथों के अध्ययन से भारत को समझा जा सकता है। वे भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराना चाहते थे।
आंग्लवादी (मैकॉले समर्थक): जेम्स मिल और मैकॉले जैसे आंग्लवादी पूर्वी ज्ञान को त्रुटिपूर्ण और अवैज्ञानिक मानते थे। उनका तर्क था कि यूरोपीय ज्ञान श्रेष्ठ है और भारतीयों को पश्चिमी विज्ञान, दर्शन और साहित्य पढ़ाना चाहिए। उनका उद्देश्य भारतीयों को ‘सभ्य’ बनाना और उन्हें अंग्रेज़ी शासन के लिए उपयोगी बनाना था। उन्होंने उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी बनाने का समर्थन किया।
इन दोनों विचारों के बीच लंबे समय तक बहस चली, अंततः मैकॉले के विचार प्रभावी हुए और अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया।
2. विलियम एडम की रिपोर्ट ने भारत की स्थानीय पाठशालाओं के बारे में क्या जानकारी दी? ब्रिटिश सरकार ने इन पाठशालाओं में क्या बदलाव लाने की कोशिश की?
उत्तर: विलियम एडम की रिपोर्ट (1830 के दशक) ने बंगाल और बिहार में लगभग एक लाख से ज़्यादा स्थानीय पाठशालाओं का विस्तृत विवरण दिया। उन्होंने पाया कि ये पाठशालाएँ छोटी थीं, आमतौर पर 20 से ज़्यादा विद्यार्थी नहीं होते थे, और स्थानीय समुदाय या गुरुओं द्वारा चलाई जाती थीं। शिक्षा प्रणाली बहुत लचीली थी:
फीस निश्चित नहीं थी, अभिभावकों की आय के हिसाब से तय होती थी।
कोई छपी हुई किताबें, अलग इमारतें, बेंच, कुर्सियाँ या ब्लैकबोर्ड नहीं थे।
कक्षाएँ या समय-सारणी निश्चित नहीं थी, कटाई के समय कक्षाएँ बंद हो जाती थीं ताकि बच्चे खेतों में काम कर सकें।
गुरु विद्यार्थियों की ज़रूरतों के हिसाब से पढ़ाते थे और अलग-अलग स्तर के बच्चों को एक साथ पढ़ाते थे।
ब्रिटिश सरकार ने 1854 के बाद इन पाठशालाओं को नियंत्रित करने के लिए नए नियम लागू किए। उन्होंने पंडितों को नियुक्त किया, जिन्होंने स्कूलों का निरीक्षण किया और गुरुओं को समय-सारणी, पाठ्यपुस्तकों और वार्षिक परीक्षाओं का पालन करने का निर्देश दिया। नियमित शुल्क लागू किया गया। जिन पाठशालाओं ने इन नियमों का पालन नहीं किया, उन्हें सरकारी सहायता नहीं मिली, जिससे गरीब बच्चों के लिए शिक्षा मुश्किल हो गई।
3. महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा संबंधी विचारों की तुलना करें।
उत्तर: महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर दोनों ही पश्चिमी शिक्षा के आलोचक थे और भारत के लिए एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली चाहते थे, लेकिन उनके विचारों में कुछ अंतर थे:
पश्चिमी सभ्यता पर दृष्टिकोण: गांधीजी पश्चिमी सभ्यता और मशीनों व प्रौद्योगिकी के कट्टर आलोचक थे। टैगोर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता और भारतीय परंपरा के सर्वश्रेष्ठ तत्वों का मिश्रण चाहते थे।
शिक्षा का उद्देश्य: गांधीजी आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा जगाने वाली शिक्षा चाहते थे जो भारतीयों को अपनी संस्कृति से जोड़े। वे हस्तकलाओं और व्यावहारिक ज्ञान पर जोर देते थे। टैगोर रचनात्मकता और मुक्ति को बढ़ावा देने वाली शिक्षा चाहते थे, जहाँ बच्चे प्रकृति के साथ सीख सकें।
माध्यम और पाठ्यक्रम: गांधीजी भारतीय भाषाओं में हस्तकला आधारित शिक्षा पर बल देते थे। टैगोर शांतिनिकेतन में कला, संगीत, नृत्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहित एक व्यापक पाठ्यक्रम पर जोर देते थे, जिसमें बच्चों को प्रकृति के साथ सीखने का अवसर मिले।
दोनों का मानना था कि शिक्षा सिर्फ साक्षरता नहीं है, बल्कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का साधन है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (5-8 अंक):
1. ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा नीति में आए प्रमुख बदलावों का विश्लेषण करें, जिसमें प्राच्यवादी, आंग्लवादी और वुड्स डिस्पैच के प्रभावों को शामिल करें।
उत्तर:
ब्रिटिश काल में भारतीय शिक्षा नीति में कई महत्वपूर्ण बदलाव आए, जो विभिन्न विचारधाराओं और आवश्यकताओं से प्रेरित थे।
1. प्राच्यवादी चरण (18वीं सदी के अंत से 19वीं सदी की शुरुआत):
विचारधारा: विलियम जोन्स, हैनरी टॉमस कोलब्रुक जैसे विद्वानों ने भारतीय भाषाओं, संस्कृतियों और प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन पर जोर दिया। उनका मानना था कि भारतीय सभ्यता प्राचीन काल में उन्नत थी और उसे समझने के लिए उसके मूल ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है।
उद्देश्य: अंग्रेज़ों को भारतीय कानून और रीति-रिवाजों को समझने में मदद करना, जिससे वे बेहतर शासन कर सकें। भारतीयों को अपनी विरासत पर गर्व महसूस कराना।
संस्थाएँ: 1781 में कलकत्ता में मदरसा और 1791 में बनारस में हिंदू कॉलेज की स्थापना की गई, जहाँ अरबी, फ़ारसी, संस्कृत और प्राचीन ग्रंथों की शिक्षा दी जाती थी। एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना भी इसी दौरान हुई।
2. आंग्लवादी चरण (19वीं सदी की शुरुआत से 1835 तक):
विचारधारा: जेम्स मिल और थॉमस बैबिंगटन मैकॉले जैसे अधिकारियों ने प्राच्यवादी दृष्टिकोण की आलोचना की। उन्होंने भारतीय ज्ञान को त्रुटिपूर्ण, अवैज्ञानिक और सतही बताया। उनका मानना था कि यूरोपीय ज्ञान (विज्ञान, दर्शन, साहित्य) श्रेष्ठ है।
उद्देश्य: भारतीयों को ‘सभ्य’ बनाना, उनकी रुचियों, मूल्यों और संस्कृति को पश्चिमी आदर्शों के अनुरूप बदलना। प्रशासन के लिए शिक्षित भारतीय कर्मचारी तैयार करना।
प्रभाव: 1835 के शिक्षा अधिनियम के माध्यम से उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी बना दिया गया। प्राच्यवादी संस्थानों को मिलने वाला प्रोत्साहन बंद कर दिया गया और अंग्रेज़ी पाठ्यपुस्तकों का प्रचलन शुरू हुआ।
3. वुड्स डिस्पैच (1854):
महत्व: यह भारत की शिक्षा नीति के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ था।
सिफारिशें:
यूरोपीय शिक्षा का प्रोत्साहन: इसने यूरोपीय ज्ञान के व्यावहारिक लाभों पर जोर दिया, जैसे व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा देना और भारतीयों के नैतिक चरित्र का उत्थान।
शिक्षा प्रणाली की संरचना: प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की एक सुव्यवस्थित शिक्षा प्रणाली की बात की गई।
शिक्षा विभाग: सरकारी शिक्षा विभागों की स्थापना की सिफारिश की गई ताकि शिक्षा संबंधी मामलों पर सरकार का नियंत्रण स्थापित हो सके।
विश्वविद्यालय: कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रावधान किया गया (जो 1857 में स्थापित हुए)।
वर्नाकुलर भाषाओं का महत्व: प्राथमिक शिक्षा के लिए स्थानीय भाषाओं (वर्नाकुलर) को बढ़ावा देने की बात कही गई, जबकि उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेज़ी को प्राथमिकता दी गई।
प्रभाव: इसने आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली की नींव रखी, जिसमें सरकारी नियंत्रण और यूरोपीय ज्ञान के प्रसार पर बल दिया गया।
4. स्थानीय पाठशालाओं का नियमन (1854 के बाद):
कंपनी ने स्थानीय पाठशालाओं को औपचारिक प्रणाली में लाने की कोशिश की।
पंडितों को स्कूलों का निरीक्षण करने, समय-सारणी, पाठ्यपुस्तकों और वार्षिक परीक्षाओं को लागू करने का जिम्मा सौंपा गया।
नियमित शुल्क और अनुशासन अनिवार्य किए गए। इससे गरीब बच्चों के लिए शिक्षा मुश्किल हो गई, क्योंकि लचीली व्यवस्था खत्म हो गई थी।
कुल मिलाकर, ब्रिटिश शिक्षा नीति का उद्देश्य न केवल भारतीयों को शिक्षित करना था, बल्कि उन्हें ‘सभ्य’ बनाना, उनकी सोच को बदलना और ब्रिटिश प्रशासन के लिए उपयोगी कर्मचारी तैयार करना भी था। इसने भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव रखी, लेकिन साथ ही भारतीय संस्कृति और भाषाओं की उपेक्षा भी की।