आदिवासी, दीकु और एक स्वर्ण युग की कल्पना

अध्याय 4: आदिवासी, दीकु और एक स्वर्ण युग की कल्पना – महत्वपूर्ण बिंदु और प्रश्नोत्तर

यह अध्याय आदिवासियों के जीवन, ब्रिटिश शासन के दौरान आए बदलावों और बिरसा मुंडा के आंदोलन पर केंद्रित है।

अध्याय के महत्वपूर्ण बिंदु (Important Points)

  • बिरसा मुंडा का आंदोलन: बिरसा मुंडा (जन्म 1870) ने छोटानागपुर क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलन का नेतृत्व किया। वे आदिवासियों को “दीकुओं” (बाहरी लोग – व्यापारी, महाजन, मिशनरी, ब्रिटिश अधिकारी) की गुलामी से मुक्त कराना चाहते थे।

  • आदिवासियों की जीवन शैली:

    • झूम खेती: कई आदिवासी समुदाय (जैसे पूर्वोत्तर और मध्य भारत में) झूम खेती करते थे, जिसे घुमंतू खेती भी कहते हैं। इसमें पेड़ों को काटकर और घास-फूस जलाकर ज़मीन साफ़ की जाती थी और राख को उपजाऊ बनाने के लिए बिखेरा जाता था।

    • शिकारी और संग्राहक: कुछ समुदाय (जैसे उड़ीसा के खोंड) शिकार और वन उत्पादों (फल, जड़ें, जड़ी-बूटियाँ, साल व महुआ के बीज का तेल) पर निर्भर थे।

    • पशुपालक: कुछ समुदाय (जैसे पंजाब के वन गुज्जर, आंध्र प्रदेश के लबाड़िया, कुल्लू के गद्दी, कश्मीर के बकरवाल) जानवर पालते थे और मौसम के हिसाब से घूमते थे।

    • स्थायी खेती: उन्नीसवीं सदी से पहले कुछ आदिवासी समुदाय (जैसे छोटानागपुर के मुंडा, गोंड, संथाल) एक जगह टिककर खेती करने लगे थे और उन्हें ज़मीन पर अधिकार भी मिलने लगे थे।

  • औपनिवेशिक शासन का प्रभाव:

    • मुखियाओं की शक्ति में कमी: ब्रिटिश शासन ने आदिवासी मुखियाओं की पारंपरिक शक्तियाँ छीन लीं, उन्हें लगान देने और ब्रिटिश नियमों का पालन करने के लिए मजबूर किया।

    • झूम खेती पर प्रतिबंध: ब्रिटिश अधिकारियों ने झूम खेती को रोकना चाहा क्योंकि वे स्थायी रूप से रहने वाले किसानों को नियंत्रित करना और उनसे नियमित लगान प्राप्त करना चाहते थे। इससे आदिवासियों को काम और रोज़गार की तलाश में दूसरे इलाकों में जाना पड़ा।

    • वन कानून और उनके प्रभाव: अंग्रेज़ों ने सारे जंगलों पर अपना नियंत्रण कर लिया और कुछ जंगलों को आरक्षित वन घोषित कर दिया। इन जंगलों में आदिवासियों को झूम खेती, शिकार और वन उपज इकट्ठा करने की मनाही थी। रेलवे स्लीपर्स के लिए मज़दूरों की ज़रूरत पूरी करने के लिए वन गाँव बसाए गए।

    • व्यापार और महाजन: व्यापारी और महाजन जंगलों में आए, उन्होंने वन उपज खरीदने के लिए आदिवासियों को कर्जा दिया और उन्हें मज़दूरी पर रखा। ब्याज दरें बहुत ज़्यादा थीं, जिससे आदिवासी कर्ज़ और गरीबी में डूब गए। रेशम उत्पादन में भी बिचौलियों को ज़्यादा फायदा होता था, आदिवासियों को कम।

    • काम की तलाश: चाय बागानों और कोयला खदानों में काम करने के लिए आदिवासियों को बड़ी संख्या में भर्ती किया गया, जहाँ उन्हें कम वेतन मिलता था और वापस घर लौटने नहीं दिया जाता था।

  • आदिवासी विद्रोह: ब्रिटिश नीतियों और शोषण के खिलाफ कई विद्रोह हुए, जैसे कोल विद्रोह (1831-32), संथाल विद्रोह (1855), बस्तर विद्रोह (1910) और वर्ली विद्रोह (1940)। बिरसा मुंडा का आंदोलन भी इसी कड़ी का हिस्सा था।

  • बिरसा का स्वर्ण युग: बिरसा एक ऐसे “स्वर्ण युग” की कल्पना करते थे जब मुंडा लोग अच्छा जीवन जीते थे, तटबंध बनाते थे, झरने नियंत्रित करते थे, पेड़ और बाग लगाते थे, ईमानदारी से जीते थे और अपनी ज़मीन पर खेती करते थे।

  • बिरसा आंदोलन का अंत: 1895 में बिरसा को गिरफ्तार कर 2 साल की सज़ा दी गई। जेल से लौटने के बाद उन्होंने फिर से आंदोलन को उकसाया, “रावणों” (दीकु और यूरोपीय) को तबाह करने का आह्वान किया। उनके अनुयायियों ने थानों और चर्चों पर हमले किए। 1900 में हैज़े से बिरसा की मृत्यु के बाद आंदोलन ठंडा पड़ गया।

  • आंदोलन का महत्व: इस आंदोलन ने औपनिवेशिक सरकार को ऐसे कानून बनाने पर मजबूर किया जिससे दीकु आदिवासियों की ज़मीन पर आसानी से कब्ज़ा न कर सकें। इसने यह भी दर्शाया कि आदिवासी अन्याय का विरोध करने में सक्षम थे।


प्रश्नोत्तर (Question Answers)

अध्याय के बीच में दिए गए प्रश्न (In-text Questions):

1. बैगा औरतें और मर्द जो काम करते हैं, उनको ध्यान से पढ़ें। क्या आपको उनमें कोई क्रम दिखाई देता है? उनके कामों में क्या फ़र्क थे? (पेज 4 पर गतिविधि)

उत्तर: हाँ, उनके कामों में एक क्रम दिखाई देता है और उनके काम फटे हुए थे।

  • चैत (मार्च-अप्रैल): औरतें इकट्ठा करने और बचे-खुचे ठूंठों को काटने जाती थीं। पुरुष बड़े पेड़ों को काटते थे और शिकार पर जाते थे।

  • बैसाख (अप्रैल-मई): जंगलों को जलाया जाता था। औरतें अधजली लकड़ियाँ बीनती थीं। पुरुष शिकार पर जाते थे।

  • जेठ (मई-जून): बुआयी होती थी और शिकार जारी रहता था।

  • आषाढ़ से भादों (जून-सितंबर): मर्द खेतों में काम करते थे।

  • क्वार (सितंबर-अक्टूबर): फलियाँ आने लगती थीं।

  • कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर): कुटकी पक जाती थी।

  • अगहन (नवंबर-दिसंबर): सारी फ़सल तैयार हो जाती थी।

  • पूस (दिसंबर-जनवरी): फ़सल को फटका जाता था, नाच-गाना और शादियाँ होती थीं।

  • माघ (जनवरी-फरवरी): पुरुष नए बेवड़ (झूम खेती के लिए साफ़ की गई ज़मीन) की तरफ़ चल देते थे। इस दौरान शिकार और चीज़ों का संग्रह मुख्य गतिविधि होती थी।

फ़र्क: पुरुषों का काम मुख्य रूप से पेड़ों को काटना, शिकार करना और नए बेवड़ की तरफ़ जाना था, जबकि औरतों का काम इकट्ठा करने, ठूंठ काटने, लकड़ियाँ बीनने और खेतों में बुवाई के काम में मदद करने का था।


रिक्त स्थान भरें (Fill in the Blanks):

(क) अंग्रेज़ों ने आदिवासियों को जंगली और बर्बर के रूप में वर्णित किया।
(ख) झूम खेती में बीज बोने के तरीके को बिखेरना कहा जाता है।
(ग) मध्य भारत में ब्रिटिश भूमि बंदोबस्त के अंतर्गत आदिवासी मुखियाओं को भूस्वामी मिल गया।
(घ) असम के चाय बागानों और बिहार की कोयला खदानों में काम करने के लिए आदिवासी जाने लगे।


सही या गलत बताएँ (True or False):

(क) झूम काश्तकार ज़मीन की जुताई करते हैं और बीज रोपते हैं।
उत्तर: गलत (वे ज़मीन को खुरचते थे और बीज बिखेरते थे)।

(ख) व्यापारी संथालों से कृमिकोष खरीदकर उसे पाँच गुना ज़्यादा कीमत पर बेचते थे।
उत्तर: सही।

(ग) बिरसा ने अपने अनुयायियों का आह्वान किया कि वे अपना शुद्धिकरण करें, शराब पीना छोड़ दें और डायन व जादू-टोने जैसी प्रथाओं में यकीन न करें।
उत्तर: सही।

(घ) अंग्रेज़ आदिवासियों की जीवन पद्धति को बचाए रखना चाहते थे।
उत्तर: गलत (वे उसे बदलना चाहते थे और उन्हें स्थायी रूप से बसाना चाहते थे)।


आइए विचार करें (Let’s Think):

3. ब्रिटिश शासन में घुमंतू काश्तकारों के सामने कौन-सी समस्याएँ थीं?

उत्तर: ब्रिटिश शासन में घुमंतू काश्तकारों के सामने कई समस्याएँ थीं:

  • घुमंतू खेती पर प्रतिबंध: अंग्रेज़ चाहते थे कि आदिवासी एक जगह टिककर खेती करें ताकि उन्हें नियंत्रित करना और नियमित लगान वसूलना आसान हो। इससे उनकी पारंपरिक झूम खेती पर रोक लग गई।

  • जंगलों तक पहुँच का अभाव: अंग्रेज़ों ने कई जंगलों को ‘आरक्षित वन’ घोषित कर दिया, जहाँ आदिवासियों को झूम खेती करने, शिकार करने या वन उत्पाद इकट्ठा करने की अनुमति नहीं थी।

  • खराब उपज: जहाँ पानी कम और मिट्टी सूखी थी, वहाँ हलों से खेती करने पर अच्छी उपज नहीं मिलती थी, जिससे उनका नुकसान होता था।

  • रोज़गार की तलाश: वन उत्पादों तक पहुँच कम होने और खेती पर प्रतिबंध लगने से उन्हें काम और रोज़गार की तलाश में दूर-दूर भटकना पड़ता था।

4. औपनिवेशिक शासन के तहत आदिवासी मुखियाओं की ताकत में क्या बदलाव आए?

उत्तर: औपनिवेशिक शासन के तहत आदिवासी मुखियाओं की ताकत में महत्वपूर्ण बदलाव आए:

  • कमज़ोर होती शक्तियाँ: उनकी पारंपरिक प्रशासनिक शक्तियाँ छीन ली गईं। वे अब अपने इलाके पर नियंत्रण नहीं रख सकते थे और अपनी पुलिस नहीं रख सकते थे।

  • ब्रिटिश नियमों का पालन: उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बनाए गए नियमों को मानने के लिए मजबूर किया गया।

  • लगान का भुगतान: उन्हें अंग्रेज़ों को नज़राना देना पड़ता था और ब्रिटिश प्रतिनिधि की हैसियत से अपने समूहों को अनुशासन में रखना पड़ता था।

  • परंपरागत काम करने में लाचारी: उनकी पुरानी ताकत नहीं रही और वे परंपरागत काम करने से लाचार हो गए। उन्हें केवल ज़मीन का मालिकाना हक मिला रहा, लेकिन उसकी प्रशासनिक शक्तियाँ नहीं।

5. दीकुओं से आदिवासियों के गुस्से के क्या कारण थे?

उत्तर: दीकुओं (बाहरी लोगों – व्यापारी, महाजन, मिशनरी, ब्रिटिश अधिकारी) से आदिवासियों के गुस्से के कई कारण थे:

  • भूमि पर कब्ज़ा: ब्रिटिश भू-नीतियों के कारण उनकी पारंपरिक भूमि व्यवस्था नष्ट हो रही थी, और महाजन तथा भूस्वामी उनकी ज़मीन छीनते जा रहे थे।

  • शोषण और कर्ज़: व्यापारी उन्हें ऊँचे दामों पर चीज़ें बेचते थे और सूदखोर महाजन बहुत ऊँचे ब्याज पर कर्ज़ देते थे, जिससे आदिवासी कर्ज़ और गरीबी के जाल में फँस जाते थे।

  • जीवन शैली में बदलाव: झूम खेती पर प्रतिबंध, जंगलों तक पहुँच की मनाही और नए वन कानूनों ने उनकी पारंपरिक जीवन शैली को बाधित कर दिया था।

  • सांस्कृतिक हस्तक्षेप: मिशनरी उनकी परंपरागत संस्कृति की आलोचना करते थे और उन्हें ईसाई बनने के लिए प्रेरित करते थे।

  • मज़दूरी और गुलामी: चाय बागानों और खदानों में उन्हें कम वेतन पर काम करने और अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया जाता था।

6. बिरसा की कल्पना में स्वर्ण युग किस तरह का था? आपकी राय में यह कल्पना लोगों को इतनी आकर्षक क्यों लग रही थी?

उत्तर: बिरसा की कल्पना में स्वर्ण युग (सतयुग) एक ऐसा समय था जब:

  • मुंडा लोग अच्छा जीवन जीते थे।

  • वे तटबंध बनाते थे, कुदरती झरनों को नियंत्रित करते थे।

  • पेड़ और बाग लगाते थे।

  • पेट पालने के लिए खेती करते थे।

  • अपने बिरादरों और रिश्तेदारों का खून नहीं बहाते थे और ईमानदारी से जीते थे।

  • लोग फिर से अपनी ज़मीन पर खेती करते थे, एक जगह टिककर रहते थे और अपने खेतों में काम करते थे।

यह कल्पना लोगों को इतनी आकर्षक इसलिए लग रही थी क्योंकि:

  • दुखों से मुक्ति: ब्रिटिश शासन के तहत आदिवासियों को शोषण, गरीबी, ज़मीन छीनने और अपनी पारंपरिक जीवन शैली में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा था। स्वर्ण युग की कल्पना उन्हें इन सभी दुखों से मुक्ति का वादा करती थी।

  • गौरवशाली अतीत की वापसी: यह उन्हें अपने गौरवपूर्ण अतीत की याद दिलाती थी जब वे स्वतंत्र और खुशहाल थे, जिससे उनमें आशा और प्रेरणा पैदा होती थी।

  • न्याय और समानता: बिरसा का सपना एक ऐसे समाज का था जहाँ कोई शोषण न हो, सब बराबर हों और अपनी ज़मीन पर स्वतंत्र रूप से जीवन जी सकें।

  • नेतृत्व में विश्वास: बिरसा में लोग एक ऐसे नेता को देख रहे थे जो उन्हें इस दयनीय स्थिति से बाहर निकाल सकता था और उनके लिए बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकता था।


आइए करके देखें (Let’s Do It):

7. अपने माता-पिता दोस्तों या शिक्षकों से बात करके बीसवीं सदी के अन्य आदिवासी विद्रोहों के नायकों के नाम पता करें। उनकी कहानी अपने शब्दों में लिखें।

उत्तर: (यह एक शोध-आधारित प्रश्न है। एक उदाहरण नीचे दिया गया है।)

अल्लूरी सीताराम राजू (1897-1924) – रम्पा विद्रोह के नायक

बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में आंध्र प्रदेश की गोदावरी एजेंसी क्षेत्र में अल्लूरी सीताराम राजू ने एक महत्वपूर्ण आदिवासी विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह, जिसे “रम्पा विद्रोह” या “मान्यम विद्रोह” के नाम से जाना जाता है, अंग्रेजों की दमनकारी वन नीतियों और आदिवासी शोषण के खिलाफ था।

पृष्ठभूमि:
अंग्रेजों ने जंगल कानूनों को बहुत सख्त कर दिया था, जिससे आदिवासियों की पारंपरिक झूम खेती (पोडू खेती) पर प्रतिबंध लग गया था। उन्हें जंगलों में प्रवेश करने, मवेशी चराने या वन उत्पाद इकट्ठा करने की अनुमति नहीं थी। इसके अलावा, अंग्रेजों ने सड़क निर्माण जैसे कामों के लिए आदिवासियों को जबरन बेगार (बिना मजदूरी के काम) करने के लिए मजबूर किया। इससे आदिवासियों में भारी असंतोष था।

अल्लूरी सीताराम राजू का उदय:
अल्लूरी सीताराम राजू एक ब्राह्मण परिवार से थे, लेकिन उन्होंने कम उम्र में ही संन्यासी का जीवन अपना लिया था। वे ज्योतिष और आयुर्वेद के ज्ञाता थे और उन्हें चमत्कारी शक्तियाँ (जैसे गोलियों को रोक देना) होने का दावा किया जाता था। उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रेरणा ली, लेकिन उनका मानना था कि अंग्रेजों से मुक्ति केवल हिंसा के माध्यम से ही मिल सकती है। उन्होंने आदिवासियों को शराब छोड़ने और खादी पहनने का आह्वान किया, लेकिन साथ ही उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया।

विद्रोह:
1922 में अल्लूरी सीताराम राजू ने आदिवासियों को संगठित किया और एक छापामार युद्ध (गोरिल्ला युद्ध) शुरू किया। उन्होंने पुलिस थानों पर हमले किए, हथियार लूटे और अंग्रेजों के अधिकारियों को निशाना बनाया। राजू के नेतृत्व में आदिवासी, अंग्रेजों की पुलिस और सेना के खिलाफ बहादुरी से लड़े। उन्होंने अंग्रेजों को काफी नुकसान पहुँचाया और उन्हें कई बार पीछे हटना पड़ा।

अंत:
अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के लिए भारी संख्या में सेना भेजी। अंततः, मई 1924 में अल्लूरी सीताराम राजू को पकड़ लिया गया और फाँसी दे दी गई। उनकी मृत्यु के साथ ही रम्पा विद्रोह समाप्त हो गया, लेकिन उन्होंने आदिवासियों के लिए संघर्ष के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बना ली। आज भी उन्हें आंध्र प्रदेश के लोकनायक और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाता है।

8. भारत में रहने वाले किसी भी आदिवासी समूह को चुनें। उनके रीति-रिवाज़ और जीवन पद्धति का पता लगाएँ और देखें कि पिछले 50 साल के दौरान उनके जीवन में क्या बदलाव आएँ हैं?

उत्तर: (यह एक शोध-आधारित प्रश्न है। एक उदाहरण नीचे दिया गया है।)

आदिवासी समूह: गोंड (मध्य भारत)

गोंड भारत के सबसे बड़े आदिवासी समूहों में से एक हैं, जो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में पाए जाते हैं।

रीति-रिवाज और जीवन पद्धति (50 साल पहले):

  • कृषि: मुख्य रूप से झूम खेती (हालांकि कुछ स्थायी खेती भी करते थे) और वन उत्पादों पर निर्भरता।

  • सामाजिक संरचना: पितृसत्तात्मक समाज, गोत्र प्रणाली का महत्व।

  • धर्म: प्रकृति पूजक, विभिन्न देवी-देवताओं (जैसे धरती माता, वन देवता) और पूर्वजों की पूजा करते थे। जादू-टोना और आत्माओं में विश्वास था।

  • भाषा: गोंडी भाषा (द्रविड़ परिवार) और स्थानीय बोलियाँ।

  • कला और संस्कृति: अपनी विशिष्ट चित्रकला (जैसे गोंड कला), नृत्य (जैसे कर्मा नृत्य), गीत और संगीत होते थे।

  • वन पर निर्भरता: जीवनयापन के लिए पूरी तरह जंगलों पर निर्भर, लकड़ी, फल, औषधीय जड़ी-बूटियाँ और शिकार उनके जीवन का अभिन्न अंग थे।

पिछले 50 सालों में आए बदलाव:

  • कृषि और आजीविका:

    • स्थायी खेती की ओर बदलाव: वन कानूनों के सख्त होने और सरकार के प्रयासों के कारण झूम खेती में कमी आई है। कई गोंड अब स्थायी कृषि करते हैं, जिसमें धान, मक्का आदि उगाते हैं।

    • आधुनिक कृषि पद्धतियाँ: कुछ लोग आधुनिक कृषि तकनीकों, जैसे ट्रैक्टर और रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कर रहे हैं, हालांकि यह अभी भी सीमित है।

    • शहरीकरण और पलायन: रोज़गार की तलाश में कई युवा शहरों और कस्बों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे उनकी पारंपरिक जीवन शैली पर असर पड़ रहा है। वे मज़दूरी, निर्माण कार्य या छोटे-मोटे व्यवसायों में लगे हैं।

  • शिक्षा और स्वास्थ्य:

    • शिक्षा का प्रसार: सरकारी स्कूलों और योजनाओं के कारण शिक्षा का स्तर बढ़ा है। बच्चे अब स्कूल जाते हैं, जिससे साक्षरता दर में वृद्धि हुई है।

    • स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच: प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सरकारी योजनाओं के माध्यम से स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच में सुधार हुआ है, जिससे शिशु मृत्यु दर और बीमारियों में कमी आई है।

  • सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव:

    • आधुनिकीकरण का प्रभाव: आधुनिकता और बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव के कारण कुछ पारंपरिक रीति-रिवाज़ और अनुष्ठान कमजोर हुए हैं।

    • भाषा का संरक्षण: गोंडी भाषा के संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव बढ़ा है।

    • कला का व्यवसायीकरण: गोंड कला को अब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है, जिससे यह एक आय का स्रोत भी बन गई है।

    • वन अधिकारों की लड़ाई: वन अधिकार अधिनियम (FRA) 2006 जैसे कानूनों ने आदिवासियों को उनके पारंपरिक वन अधिकारों को मान्यता दी है, जिससे उनके जीवन में कुछ सुधार आया है।

  • राजनीतिक चेतना: आदिवासियों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी है। वे अब राजनीतिक प्रक्रियाओं में अधिक सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं और अपने हितों की रक्षा के लिए आवाज़ उठा रहे हैं।

कुल मिलाकर, पिछले 50 सालों में गोंड समुदाय ने कई बदलाव देखे हैं, जहाँ पारंपरिक जीवन शैली और आधुनिकता का मिश्रण देखने को मिलता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसरों तक बेहतर पहुँच ने उनके जीवन स्तर में सुधार किया है, लेकिन साथ ही उन्हें अपनी सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है।

 

click here for More Notes for CBSE VIIIth Class- Click

Leave a comment